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Kutub minar:1192 ई. मे क़ुतुब मीनार का जाने इतिहास

Manoj Shukla

By Manoj Shukla

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Kutub minar : क़ुतुब मीनार का इतिहास आज का नहीं है, यह सदियों पुराना है। पुरानी देहली की शुरुआत यानी ढिल्लिका अंत – सन 1192 ईस्वी में तुर्कों ने दिल्ली क्या जीती मानो दिल्ली के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया था। लेकिन यह अफ़सोस इस बात का रहा कि नया अध्याय लिखने वालों ने पुराने सारे अध्याय फाड़ दिए. जहा इस नए अध्याय के साक्षी जैसे क़ुतुब मीनार , कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद , बलबन का मकबरा , आज भी अपनी कहानी सुना रहे हैं और हमको लगता है कि दिल्ली यही है जबकि सचाई यह है कि इनसे पूर्व की एक दिल्ली और थी जिसका इतिहास लगभग अँधेरे में है क्यूंकि उसके किसी भी पहलू चाहे वो राजनैतिक हो या सामाजिक , आर्थिक हो या सांस्कृतिक के बारे में जानने के लिए आज हमारे पास आधिकारिक रूप से इसका स्रोत न के बराबर हैं।

Kutub minar : जहा अब हम आपको उन राज्यों में जहां कि तुर्कों और मुगलों ने सीधा राज किया भारतीय इस्लामिक वास्तुकला के न जाने कितने उदाहरण सन 1192 से लेकर अगले लगभग छ: सौ वर्षों की अवधि के दौरान प्राप्त होते हैं लेकिन इस क्षेत्र में विशुद्ध भारतीय वास्तुकला के उदाहरण नहीं मिला करते है।

तो क्या विशुद्ध हिन्दू प्रासादों और इस्लामी शैली पर बने प्रासादों का सह आस्तित्व संभव नहीं था ?  सन 1192 ईस्वी से पहले का दिल्ली में सिर्फ एक अभिलेख मिला है और वो भी मौर्य कालीन है क्या मौर्यों से तुर्क आगमन तक के लगभग 1500 वर्षों में दिल्ली में कोई अभिलेख लिखा ही नहीं गया है?

Kutub minar : इतिहास मे यह लिखा ही नहीं है की दिल्ली का पहला तुर्क शासक कौन था सब को मालूम है पर आखिरी भारतीय शासक कौन था , इस पर भ्रम है। दिल्ली पर चौहान रहे या तोमर ये भी विवाद का विषय सदियों से बना है . यह कैसी स्थिति है कि सन 1192 के आगे सब कुछ साफ़ है और उससे पहले का सब कुछ धुंधला दिखाई देता है। जहा कुतुबद्दीन अपनी विजय की घोषणा करता है और कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के पूर्वी दरवाज़े पर लिखवाता है कि इस किले को जीता और सत्ताईस मंदिरों की सामिग्री से इस मस्जिद को बनवाया तो निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दिल्ली पहले से ही आबाद थी लेकिन उसके स्वतंत्र साक्ष्य हमको आज तक क्यूँ नहीं मिलते. क्या इतिहास कारो ने उसे इतिहास को नष्ट कर दिया है। दिल्ली और आस पास में आज की तारीख में प्रारम्भ से अठाहरवीं सदी के मध्य तक का कोई हिन्दू प्रसाद नहीं मिलता है इसके क्या कारण हो सकते हैं। या तो हिन्दुओं को वास्तुकला का ज्ञान समाप्त हो गया था , या उनके पास धन नहीं था , या रहने लिए बड़े भवनों और पूजा के लिए मंदिरों की आवश्यकता नहीं थी यह सब कहने की बात है। जहा ऐसा सिर्फ दिल्ली के लिए नहीं है ऐसा हम उन सभी क्षेत्रो के लिए भी हम कह सकते हैं जहां तुर्कों और मुगलों की सीधी हुकूमत थी हांलांकि यहा एक दो अपवाद संभव हैं।

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मै मनोज कुमार शुक्ला 9 सालों से लगातार पत्रकारिता मे सक्रिय हूं, समय पर और सटीक जानकारी उपलब्ध कराना ही मेरी पहली प्राथमिकता है।

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