Teej vrat : हरितालिका तीज की जाने व्रत कथा का महत्व
आज हम आपको हरतालिका तीज के बारे में पूरी जानकारी देने वाले हैं जहां पर हड़ताल का तीज आखिर क्यों मनाई जाती है और उसका क्या महत्व है इसके साथ ही साथ हरतालिका तीज की व्रत की कथा का महत्व है। यह उसे समय की बात है जब भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण किया करते थे जिसके उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।
Teej vrat : जहा भगवान महादेव बोले- हे पार्वती ! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप तुमने किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न को न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर अपना जीवन बिताया है। माघ की ठंडी मे विकराल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तपस्या किया है। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को भी अपने तुमने तपाया है। सावन के महीने की मूसलधार बारिस में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया है।
तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बहुत दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश भी होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर मे पधारे थे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण उनसे पूछा था।
Teej vrat : तब नारदजी ने यह कहा था की गिरिराज मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां पर उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बहुत ही बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी बेटी से विवाह करना चाहते हैं। तब इस संदर्भ में मै आपकी राय जानना चाहता हूं।
इस तरह नारदजी की बात सुनकर गिरिराज प्रसन्न हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही अचानक से दूर हो गए। साथ ही प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान् यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला हमें इस पर क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बन जाए। तथा पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी भी रहे।
Teej vrat : तब भगवान शंकर फिर से कहते हैं कि तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार उन्हें सुनाया। लेकिन इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा।
तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को भी समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण भी जानना चाहा था। तब तुमने यह बताया था की मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है,लेकिन मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया है। मैं विचित्र धर्म-संकट में फसी हुई हूं।
Teej vrat : इसीलिए अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अलावा अब कोई भी उपाय शेष मेरे पास नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी।
उसने कहा- हे सखी प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? इस संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। समस्त नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करना चाहिए। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में अत्यंत लीन हो जाना। तब मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।
Teej vrat : भगवान शंकर फिर बताते हैं कि तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। तब वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण भी कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बहुत बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज बीन भी शुरू करवा दी।
इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में अत्यंत लीन थीं। जब भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया था। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागती रही थी।
तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। जिसके बाद मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए मैंने कहा था।
तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा की मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में मुझे स्वीकार कर लीजिए।
जिसके बाद मैंने ‘तथास्तु’ कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। सुबह होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित किया और अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा कर लिया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते भी वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछ लिया। तब उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू भी उमड़ आए थे।
Teej vrat : जिसके बाद तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिता दिया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।
जिसके बाद गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध भी दिया।
Teej vrat : इसीलिए हे पार्वती भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका था। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं।इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से इसे करना चाहिए।
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