“गोलियों से छलनी शरीर, फिर भी बंकर उड़ाए, करगिल युद्ध के ‘शेर’ कैप्टन मनोज पांडे की अमर गाथा”
Kargil युद्ध के दौरान देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज कुमार पांडे की वीरता की कहानी आज भी हर भारतीय के हृदय को गर्व से भर देती है। उन्होंने न केवल दुश्मन के कब्जे वाले खालूबार टॉप को फतेह किया, बल्कि अपने अदम्य साहस से चार बंकर तबाह करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
Kargil मे कैप्टन मनोज पांडे का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रूढ़ा गांव में हुआ था। बचपन से ही उनका सपना था कि वे भारतीय सेना में शामिल होकर देश सेवा करें। एनडीए और आईएमए से प्रशिक्षण के बाद 1997 में वे 11 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में नियुक्त हुए।
1999 में जब Kargil युद्ध छिड़ा, तब कैप्टन मनोज को Batalik सेक्टर के खालूबार टॉप को दुश्मन के कब्जे से मुक्त कराने की जिम्मेदारी दी गई। यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। 3 जुलाई की रात, बेहद मुश्किल हालातों में, 16,000 फीट की ऊंचाई पर, तेज बर्फीली हवाओं और दुश्मन की चौकसी के बीच उन्होंने अपने साथियों के साथ हमला बोला।
बंकरों की ओर बढ़ते हुए उन्हें कई गोलियां लगीं, फिर भी उन्होंने एक के बाद एक चार दुश्मन बंकरों को तबाह कर दिया। आखिरी बंकर उड़ाने के बाद जब वे पीछे लौटे, तब तक वे गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। उन्होंने शहीद होने से पहले अपने मिशन को पूरा किया।
उनकी असाधारण बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। आज लखनऊ में स्थित कैप्टन मनोज पांडे चौराहा, सैन्य स्कूल और कई सार्वजनिक स्थलों पर उनका नाम अमर है।
Kargil के इस रणबांकुरे ने यह साबित कर दिया –
“कुछ जीतें गोलियों से होती हैं, कुछ दिलों से – और कुछ इतिहास रचती हैं।