Indian history :“कोयले से चलने वाली सात प्रेस — वो समय जब अंगारे बोलते थे”
Indian history : वह समय जब कपड़े की सिलवटों को सीधा करने के लिए आधुनिक बिजली या स्टीम नहीं थी, बल्कि एक गरम-धोलता लोहे का डिब्बा — जिसमें कोयला जलता — वो ही था असली हीरो। उस दौर में पेशेवर धोबी सात कोयला-चालित प्रेस साथ रखते थे, ताकि एक ठंडी हो तो दूसरी तैयार हो। इन प्रेसों ने घरेलू काम की दुनिया में क्रांति ला दी।
कैसे काम करती थी यह प्रेस?
यह प्रेस एक खोखले लोहे के बॉक्स की तरह होता था, जिसमें ऊपर लकड़ी या मिट्टी का हैंडल होता था। बॉक्स का ऊपरी ढक्कन खुलता था और उसमें कोयले या चारकोल को भरा जाता था। छोटी-छोटी वेंटिंग (हवादार छिद्र) बॉक्स के किनारों पर होती थीं, जिससे हवा अंदर जाती और कोयला जलता रहता। इससे गर्मी बनी रहती और इस्त्री (प्रेस) कपड़े पर गर्मी और दबाव से सिलवटें निकालती, जिससे कपड़े चिकने हो जाते।
Indian history : 1850 के आसपास, कोयले से निकलने वाले धुएँ और प्रदूषण को कम करने के लिए चारकोल का उपयोग बढ़ा जिससे धुएँ में कमी आई और यह कार्य सुरक्षित हुआ। ये विवरण वैश्विक InCH (इंटेन्शनल कल्चरल हेरीटेज) के अनुसार दर्ज हैं।
कोयले का उपयोग और संचालन अवधि
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में स्पष्ट मात्रा नहीं मिलती, लेकिन सामान्य प्रचलन के मुताबिक एक बार चारकोल से भरा प्रेस लगभग 20-30 मिनट तक लगातार गर्म रहता था। इस दौरान धबी बड़े आराम से कई कपड़े इस्त्री कर सकते थे। यदि कपड़े ज्यादा मोटे हों, तो बीच-बीच में कोयला अधूरा हो जाने पर उसे दोबारा भरा जाता था।
धोबी सात प्रेस इसलिए रखते थे, ताकि यदि एक ठंडी हो जाए तो दूसरी गर्म रहती, इस तरह काम में रुकावट नहीं आती।
Indian history : इतिहास और विकास
इस तकनीक का इतिहास चीन में ईसा पूर्व पहली सदी से जुड़ा हुआ है, जब धातु के पैन में अंगारे (कोयला) भरकर कपड़ों पर चलाया जाता था। 17वीं शताब्दी में यह डिजाइन विकसित होकर “बॉक्स आयरन” बन गया, जहां कोयलन को अंदर रखकर उपयोग में ज्यादा नियंत्रण और सुविधा हुई। यह तकनीक 19वीं सदी में भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में व्यापक रूप से अपनाई गई, विशेषकर धोबी वर्ग में 작업 का अभिन्न हिस्सा बन गई।
इसका कोई विशेष “आविष्कारक” नहीं था; यह समय के साथ विभिन्न क्षेत्रों के कारीगरों द्वारा परिष्कृत हुआ, और कई शताब्दियों में विकसित होता रहा।
विरासत और सामाजिक अर्थ
यह कोयला-चालित प्रेस सिर्फ तकनीकी उपकरण नहीं थी, यह मेहनत, समुदाय और पारंपरिक ज्ञान की कहानी थी। बिजली और स्टीम प्रेस आने से पहले यह उपकरण भरोसे और आत्मनिर्भरता का प्रतीक था। आज, ग्रामीण भारत के कुछ इलाकों में यह अस्तित्व में है—जहाँ बिजली नहीं पहुंच पाती, वहां यह पुरानी विधि अभी भी उपयोगी बनी हुई है।
निष्कर्ष:
19वीं सदी की कोयला-चालित प्रेस ने घरेलू और व्यावसायिक अधोसंरचना में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया। इसका सरल लेकिन प्रभावी डिज़ाइन, कोयलन-आधारित गर्मी, और सामाजिक–पारंपरिक महत्व आज भी ऐतिहासिक अध्ययन के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
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