Mp history : धार के महाराजा आनंद राव पवार,ब्रिटिश हुकूमत को स्वीकार करने वाले शासक, प्रशासनिक सुधारों से रियासत को दी स्थिरता
Mp history : 19वीं सदी के धार रियासत के मराठा शासक महाराजा आनंद राव पवार (1844–1898) इतिहास में एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के दबाव को स्वीकार करते हुए अपनी रियासत को स्थिर बनाए रखा। जहां आम भारतीय जनता अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ थी और स्वतंत्रता की भावना के साथ खड़ी थी, वहीं आनंद राव पवार ने व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर ब्रिटिश सत्ता के अधीन रहना ही अपनी रियासत के लिए बेहतर समझा।
ब्रिटिश संरक्षण की स्वीकृति
1818 के तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद धार रियासत ब्रिटिश सुरक्षा में आ गई। 1857 के संग्राम के दौरान यहां विद्रोह की स्थिति बनी, जिसके चलते अंग्रेजों ने रियासत को जब्त कर लिया। लेकिन 1860 में महाराजा आनंद राव पवार को पुनः गद्दी पर बैठाया गया, हालांकि कुछ हिस्से स्थायी रूप से छीन लिए गए। ब्रिटिश हुकूमत के प्रति निष्ठा और सहयोग दिखाने के बदले उन्हें 1877 में “सर” की उपाधि और KCSI (नाइट कमांडर) का सम्मान दिया गया।
Mp history : स्वतंत्रता संग्राम में विवादित भूमिका
1857 की क्रांति जब चरम पर थी, तब धार में भी विद्रोह की लहर उठी। कुछ समय के लिए किला विद्रोहियों के हाथों में चला गया, लेकिन अंततः महाराजा आनंद राव ने अंग्रेजों का साथ देकर इस आंदोलन को दबाने में सहयोग किया। यहीं से उनकी भूमिका विवादों में घिर गई। भारतीय जनता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए यह कदम “गुलामी स्वीकार करने” जैसा था, लेकिन महाराजा के लिए यह रियासत को बचाने का रास्ता था।
प्रशासनिक सुधार और विकास
ब्रिटिश वफादारी के बावजूद आनंद राव पवार ने अपनी रियासत के आंतरिक प्रशासन को मजबूत करने में काफी प्रयास किए। उन्होंने कर प्रणाली को व्यवस्थित किया, सिंचाई और खेती पर ध्यान दिया तथा शिक्षा व धार्मिक संस्थानों को प्रोत्साहन दिया। उनके शासनकाल में सड़कों और बाजारों जैसी आधारभूत सुविधाओं का भी विकास हुआ। इस प्रकार उन्होंने एक प्रशासक के रूप में अपने शासन को प्रभावशाली बनाया।
Mp history : जनता और शासक के बीच दूरी
जहां उनकी नीतियों से रियासत में स्थिरता आई, वहीं आम जनता के बीच यह संदेश गया कि महाराजा ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली है। भारतीय समाज, जो कभी ब्रिटिश गुलामी के आगे नहीं झुका, उसने इसे आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के विरुद्ध माना। यही कारण है कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में आनंद राव पवार की छवि स्वतंत्रता सेनानियों जैसी नहीं बन पाई।
ऐतिहासिक महत्व
1898 में महाराजा आनंद राव पवार का निधन हुआ और उनके बाद पुत्र उदाजी राव पवार II गद्दी पर बैठे। इतिहास में उनका नाम एक ऐसे शासक के रूप में दर्ज है, जिन्होंने स्वतंत्रता की भावना के बजाय ब्रिटिश वफादारी को चुना। हालांकि, उनकी प्रशासनिक क्षमता, सामाजिक सुधार और रियासत की स्थिरता बनाए रखने के प्रयासों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
निष्कर्ष
महाराजा आनंद राव पवार का शासन भारतीय इतिहास में दो विरोधी छवियों के साथ याद किया जाता है। एक ओर वे अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने वाले शासक थे, वहीं दूसरी ओर वे एक सक्षम प्रशासक भी साबित हुए जिन्होंने अपनी रियासत को राजनीतिक उथल-पुथल के समय सुरक्षित और संगठित रखा। यही कारण है कि वे आज भी इतिहासकारों की बहस का विषय बने हुए हैं।
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