1857 की क्रांति के भूले-बिसरे नायक: महा सिंह उर्फ़ महुआ कोल
REWA : भारत के स्वतंत्रता संग्राम की कहानी केवल दिल्ली, कानपुर या लखनऊ तक सीमित नहीं थी, इसकी गूंज मध्यप्रदेश की धरती पर भी सुनाई दी। खासकर आदिवासी समाज से जुड़े अनेक नाम ऐसे रहे, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई, किंतु इतिहास की किताबों में उन्हें उचित स्थान नहीं मिल सका। इन्हीं वीर सपूतों में से एक थे महा सिंह, जिन्हें जनमानस में महुआ कोल के नाम से जाना जाता है।
आदिवासी पृष्ठभूमि से निकला एक योद्धा
REWA : महा सिंह का जन्म कोल आदिवासी समुदाय में हुआ था। यह समाज विंध्य और महाकौशल क्षेत्र में बसा हुआ था और अपनी मेहनतकश जीवनशैली, खेती-बाड़ी तथा वन उपज पर आधारित संस्कृति के लिए जाना जाता था। महुआ कोल बचपन से ही निर्भीक और न्यायप्रिय स्वभाव के थे। अत्याचार सहना उनकी फितरत नहीं थी, और यही गुण आगे चलकर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ खड़ा कर गया।
बुंदेला विद्रोह से शुरुआत
कहा जाता है कि महुआ कोल ने सबसे पहले बुंदेला विद्रोह में भाग लिया था। बुंदेलखंड के इस विद्रोह ने अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों और किसानों के असंतोष को उभारने का काम किया। महुआ कोल ने इस संग्राम में अंग्रेजी सेनाओं को कड़ी टक्कर दी और अपनी वीरता से जनता में सम्मान अर्जित किया।
1857 की क्रांति में सक्रिय भूमिका
REWA : 1857 में जब पूरे देश में स्वतंत्रता की ज्वाला भड़की, तब महुआ कोल भी पीछे नहीं रहे। जबलपुर और आसपास के क्षेत्रों में उन्होंने अंग्रेजी सेना के खिलाफ डटकर मोर्चा संभाला। अंग्रेजों के दमनकारी शासन से त्रस्त आदिवासियों और किसानों को उन्होंने एकजुट किया। उनके नेतृत्व में कई बार अंग्रेजों की टुकड़ियों को मुंहतोड़ जवाब मिला।
गिरफ्तारी और रहस्यमयी अंत
अंग्रेजी हुकूमत महुआ कोल के साहस से भयभीत हो उठी थी। कई बार उन्हें पकड़ने की कोशिश की गई, पर वे हर बार बच निकलते। आखिरकार विश्वासघात और चालबाजी से अंग्रेज उन्हें गिरफ्तार करने में सफल हुए। उन्हें जबलपुर की जेल में डाल दिया गया। इतिहासकारों के अनुसार वहीं पर एक रहस्यमयी परिस्थिति में उनकी मृत्यु हो गई। कुछ लोककथाओं में कहा जाता है कि उन्हें गुप्त रूप से मार डाला गया, ताकि उनकी शहादत का असर जनमानस पर न पड़े।
क्यों भूला दिया गया यह नाम?
आजादी के बाद भी महुआ कोल का नाम राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं पा सका। जबकि उनके समकालीन कई योद्धाओं के नाम पर शासकीय संस्थाओं और स्मारकों का निर्माण हुआ, वहीं महुआ कोल का नाम केवल लोककथाओं और क्षेत्रीय स्मृतियों में ही सीमित रह गया।
आदिवासी गौरव का प्रतीक
महा सिंह उर्फ़ महुआ कोल केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि आदिवासी समाज की आत्मसम्मान और स्वतंत्रता की भावना का प्रतीक थे। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि 1857 की क्रांति सिर्फ राजाओं और रियासतों का युद्ध नहीं था, बल्कि आम किसान और आदिवासी भी इस महायुद्ध का अहम हिस्सा थे।
निष्कर्ष
आज आवश्यकता है कि महुआ कोल जैसे भूले-बिसरे नायकों को इतिहास के पन्नों पर उचित स्थान मिले। उनके नाम पर शासकीय संस्थाओं और स्मारकों का निर्माण हो, ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सकें कि स्वतंत्रता की नींव केवल बड़े शहरों में नहीं, बल्कि गांव-गांव, जंगल-जंगल और आदिवासी वीरों के रक्त से भी सिंची गई थी।
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